- मेरी उमर इस समय १५ साल की हो गई थी, और मेरा भी सोलहवा साल चलने लगा था। गांव के स्कुल में ही पढाई-लिखाई चालु थी। हमारा एक छोटा सा खेत था। जीस पर पिताजी काम करते थे और मैं और मेरी बड़ी बहिन राखी ने कपडे साफ करने का काम संभाल रखा था। कुल मिला कर हम बहुत सुखी-संपन्न थे। और कीसी चीज की दिक्कत नही थी। मेरे से पहले कपडे साफ करने में, मेरी बड़ी बहिन का हाथ मेरी छोटी बहन बटाती थी। मगर अब मैं ये काम करता था। हम दोनो भाई बहिन हर हफ्ते में दो बार नदी पर जाते थे और सफाई करते थे। फिर घर आकर उन कपडो की ईस्त्री कर के, उन्हे गांव में वापस लौटा कर, फिर से पुराने, गन्दे कपडे इखट्टे कर लेते थे। हर बुधवार और शनिवार को सुबह ९ बजे के समय मैं और बहिन एक छोटे से गधे पर, पुराने कपडे लाद कर नदी की और निकल पडते। हम गांव के पास बहनेवाली नदी में कपडे ना धो कर गांव से थोडा दुर जा कर सुमसान जगह पर कपडे धोते थे। क्योंकि गांव के पास वाली नदी पर साफ पानी भी नही मिलता था, और डिस्टर्बन्स भी बहुत होता था।अब मैं जरा अपनी बहिन के बारे में बता दुं। वो ३४-३५ साल के उमर की एक बहुत सुंदर गोरी-चीट्टी औरत है। ज्यादा लंबी तो नही परंतु उसकी लंबाई ५ फूट ३ ईंच की है, और मेरी ५ फूट ७ ईंच की है। बहिन देखने मे बहुत सुंदर है।बहिन के सुंदर होने के कारण गांव के लोगो की नजर भी उसके उपर रहती होगी, ऐसा मैं समझता हुं। और शायद इसी कारण से वो कपडे धोने के लिये सुम-सान जगह पर जाना ज्यादा पसंद करती थी। सबसे आकर्षक उसके मोटे-मोटे चुतड और नारीयल के जैसे स्तन थे। जो की ऐसे लगते थे, जैसे की ब्लाउस को फाड के नीकल जायेन्गे और भाले की तरह से नुकिले थे। उसके चुतड भी कम सेक्षी नही थे। और जब वो चलती थी तो ऐसे मटकते थे की देखने वाले, उसकी हिलती गांड को देख कर हिल जाते थे। पर उस वक्त मुझे इन बातो का कम ही ग्यान था। फिर भी थोडा बहुत तो गांव के लडको के साथ रहने के कारण पता चल ही गया था। और जब भी मैं और बहिन कपडे धोने जाते तो मैं बडी खुशी के साथ कपडे धोने उसके साथ जाता था।
जब राखी , कपडे को नदी के किनारे धोने के लिये बैठती थी, तब वो अपनी साडी और पेटिकोट को घुटनो तक उपर उठा लेती थी और फिर पिछे एक पत्थर पर बैठ कर आराम से दोनो टांगे फैला कर जैसा की औरते पेशाब करते वक्त करति है, कपडो को साफ करती थी। मैं भी अपनी लुन्गी को जांघ तक उठा कर कपडे साफ करता रहता था। इस स्थिति मे राखी की गोरी-गोरी टांगे, मुझे देखने को मिल जाती थी और उसकी साडी भी सिमट कर उसके ब्लाउस के बीच मे आ जाती थी और उसके मोटे-मोटे चुंचो के, ब्लाउस के पर से दर्शन होते रहते थे। कई बार उसकी साडी जांघो के उपर तक उठ जाती थी और ऐसे समय, मे उसकी गोरी-गोरी, मोटी-मोटी केले के तने जैसी चिकनी जांघो को देख कर मेरा लंड खडा हो जाता था। मेरे मन मे कई सवाल उठने लगते। फिर मैं अपना सिर झटक कर काम करने लगता था। मैं और बहिन कपडो की सफाई के साथ-साथ तरह-तरह की गांव भर की बाते भी करते जाते। कई बार हमे उस सुम-सान जगह पर ऐसा कुछ् दीख जाता था जीसको देख के हम दोनो एक दुसरे से अपना मुंह छुपाने लगते थे। कपडे धोने के बाद हम वहीं पर नहाते थे, और फिर साथ लाया हुआ खाना खा, नदी के किनारे सुखाये हुए कपडे को इकट्ठा कर के घर वापस लौट जाते थे। मैं तो खैर लुन्गी पहन कर नदी के अंदर कमर तक पानी में नहाता था, मगर राखी नदी के किनारे ही बैठ कर नहाती थी। नहाने के लिये राखी सबसे पहले अपनी साडी उतारती थी फिर अपने पेटिकोट के नाडे को खोल कर, पेटिकोट उपर को सरका कर अपने दांत से पकड लेती थी। इस तरीके से उसकी पीठ तो दिखती थी मगर आगे से ब्लाउस पुरा ढक जाता था। फिर वो पेटिकोट को दांत से पकडे हुए ही अंदर हाथ डाल कर अपने ब्लाउस को खोल कर उतारती थी और फिर पेटिकोट को छाती के उपर बांध देती थी। जीससे उसके चुंचे पुरी तरह से पेटिकोट से ढक जाते थे, कुछ भी नजर नही आता था, और घुटनो तक पुरा बदन ढक जाता था। फिर वो वहीं पर नदी के किनारे बैठ कर, एक बडे से जग से पानी भर-भर के पहले अपने पुरे बदन को रगड-रगड कर साफ करती थी और साबुन लगाती थी, फिर नदी में उतर कर नहाती थी। राखी की देखा-देखी, मैने भी पहले नदी के किनारे बैठ कर अपने बदन को साफ करना सुरु कर दीया, फिर मैं नदी में डुबकी लगा के नहाने लगा। मैं जब साबुन लगाता तो अपने हाथो को अपनी लुन्गी में घुसा के पुरे लंड और गांड पर चारो तरफ घुमा-घुमा के साबुन लगा के सफाई करता था। क्योंकि मैं भी राखी की तरह बहुत सफाई पसंद था। जब मैं ऐसा कर रहा होता तो मैने कई बार देखा की राखी बडे गौर से मुझे देखती रहती थी, और अपने पैर की एडीयां पत्थर पर धीरे-धीरे रगड के साफ करती होती। मैं सोचता था वो शायद इसलिये देखती है की, मैं ठीक से सफाई करता हुं या नही। इसलिये मैं भी बडे आराम से खूब दीखा-दीखा के साबुन लगाता था की कहीं डांट ना सुनने को मिल जाये की, ठीक से साफ-सफाई का ध्यान नही रखता हुं मैं। मैं अपनी लुन्गी के भितर पुरा हाथ डाल के अपने लौडे को अच्छे तरीके से साफ करता था। इस काम में मैने नोटिस किया की, कई बार मेरी लुन्गी भी इधर-उधर हो जाती थी। जीस से राखी को मेरे लंड की एक-आध झलक भी दीख जाती थी। जब पहली बार ऐसा हुआ, तो मुझे लगा की शायद राखी डांटेगी, मगर ऐसा कुछ नही हुआ। तब निश्चींत हो गया, और मजे से अपना पुरा ध्यान साफ सफाई पर लगाने लगा। राखी की सुंदरता देख कर मेरा भी मन कई बार ललचा जाता था। और मैं भी चाहता था की मैं उसे सफाई करते हुए देखुं। पर वो ज्यादा कुछ देखने नही देती थी और घुटनो तक की सफाई करती थी, और फिर बडी सावधानी से अपने हाथो को अपने पेटिकोट के अंदर ले जा कर अपनी छाती की सफाई करती। जैसे ही मैं उसकी ओर देखता तो, वो अपना हाथ छाती में से निकाल कर अपने हाथो की सफाई में जुट जाती थी। इसलिये मैं कुछ नही देख पाता था और चुंकि वो घुटनो को मोड के अपनी छाती से सटाये हुए होती थी, इसलिये पेटिकोट के उपर से छाती की झलक मिलनी चाहीए, वो भी नही मिल पाती थी। इसी तरह जब वो अपने पेटिकोट के अंदर हाथ घुसा कर अपनी जांघो और उसके बीच की सफाई करती थी। ये ध्यान रखती की मैं उसे देख रहा हुं या नही। जैसे ही मैं उसकी ओर घुमता, वो झट से अपना हाथ नीकाल लेती थी, और अपने बदन पर पानी डालने लगती थी। मैं मन-मसोस के रह जाता था। एक दिन सफाई करते-करते राखी का ध्यान शायद मेरी तरफ से हट गया था। और बडे आराम से अपने पेटिकोट को अपने जांघो तक उठा के सफाई कर रही थी। उसकी गोरी, चीकनी जांघो को देख कर मेरा लंड खडा होने लगा और मैं, जो की इस वक्त अपनी लुन्गी को ढीला कर के अपने हाथो को लुन्गी के अंदर डाल कर अपने लंड की सफाई कर रहा था, धीरे-धीरे अपने लंड को मसलने लगा। तभी अचानक राखी की नजर मेरे उपर गई, और उसने अपना हाथ नीकाल लिया और अपने बदन पर पानी डालती हुइ बोली,
" क्या कर रहा है ? जल्दी से नहा के काम खतम कर। "
मेरे तो होश ही उड गये, और मैं जल्दी से नदी में जाने के लिये उठ कर खडा हो गया, पर मुझे इस बात का तो ध्यान ही नही रहा की मेरी लुन्गी तो खुली हुइ है, और मेरी लुन्गी सरसराते हुए नीचे गीर गई। मेरा पुरा बदन नन्गा हो गया और मेरा ८।५ ईंच का लंड जो की पुरी तरह से खडा था, धूप की रोशनी में नजर आने लगा। मैने देखा की राखी एक पल के लिये चकित हो कर मेरे पुरे बदन और नन्गे लंड की ओर देखती रह गई। मैने जल्दी से अपनी लुन्गी उठाइ और चुप-चाप पानी में घुस गया। मुझे बडा डार लग रहा था की अब क्या होगा। अब तो पक्की डांट पडेगी। मैने कनखियों से आभा की ओर देखा तो पाया की वो अपने सिर को नीचे कीये हल्के-हल्के मुस्कुरा रही है। और अपने पैरो पर अपने हाथ चला के सफाई कर रही है। मैने राहत की सांस ली। और चुप-चाप नहाने लगा। उस दिन हम ज्यादातर चुप-चाप ही रहे। घर वापस लौटते वक्त भी राखी ज्यादा नही बोली। दुसरे दिन से मैने देखा की राखी , मेरे साथ कुछ ज्यादा ही खुल कर हंसी मजाक करती रहती थी, और हमारे बीच डबल मीनींग (दोहरे अर्थो) में भी बाते होने लगी थी। पता नही राखी को पता था या नही पर मुझे बडा मजा आ रहा था। मैने जब भी किसी के घर से कपडे ले कर वापस लौटता तो राखी बोलती,
"क्यों, रधिया के कपडे भी लाया है धोने के लिये, क्या ?"
तो मैं बोलता, "हां ।",
इस पर वो बोलती,
"ठीक है, तु धोना उसके कपडे बडा गन्दा करती है। उसकी सलवार तो मुझसे धोई नही जाती।"
फिर् पुछती थी,
"अंदर के कपडे भी धोने के लिये दिये है, क्या ?"
अंदर के कपडो से उसका मतलब पेन्टी और ब्रा या फिर अंगिया से होता था। मैं कहता, " नही. ", तो इस पर हसने लगती और कहती,
"तु लडका है ना, शायद इसलिये तुझे नही दिये होन्गे, देख अगली बार जब मैं मांगने जाउन्गी, तो जरुर देगी।"
फिर, अगली बार जब वो कपडे लाने जाती तो सच-मुच में, वो उसकी पेन्टी और अंगिया ले के आती थी और बोलती,
"देख, मैं ना कहती थी की, वो तुझे नही देगी और मुझे दे देगी, तु लडका है ना, तेरे को देने में शरमाती होगी, फिर तु तो अब जवान भी हो गया है।"
मैं अन्जान बना पुछता की क्या देने में शरमाती है रधिया, तो मुझे उसकी पेन्टी और ब्रा या अंगिया फैला कर दिखाती और मुस्कुराते हुए बोलती,
"ले, खुद ही देख ले।"
इस पर मैं शरमा जाता और कनखियों से देख कर मुंह घुमा लेता तो, वो बोलती,
"अरे, शरमाता क्यों है ?, ये भी तेरे को ही धोना पडेगा।",
कह के हसने लगती।
हालांकि, सच में ऐसा कुछ नही होता और ज्यादातर मर्दो के कपडे मैं और औरतों के आभा ही धोया करती थी। क्योंकि, उस में ज्यादा मेहनत लगती थी। पर पता नहीं क्यों राखी , अब कुछ दिनो से इस तरह की बातों में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगी थी। मैं भी चुप-चाप उसकी बातें सुनता रहता और मजे से जवाब देता रहता था। जब हम नदी पर कपडे धोने जाते तब भी मैं देखता था की, मां, अब पहले से थोडी ज्यादा खुले तौर पर पेश आती थी। पहले वो मेरी तरफ पीठ करके अपने ब्लाउस को खोलती थी, और पेटिकोट को अपनी छाती पर बांधने के बाद ही मेरी तरफ घुमती थी। पर अब वो इस पर ध्यान नही देती, और मेरी तरफ घुम कर अपने ब्लाउस को खोलती और मेरे ही सामने बैठ कर मेरे साथ ही नहाने लगती। जबकि पहले वो मेरे नहाने तक इन्तेजार करती थी और जब मैं थोडा दूर जा के बैठ जाता, तब पुरा नहाती थी। मेरे नहाते वक्त उसका मुझे घुरना बा-दस्तूर जारी था। मुझ में भी अब हिम्मत आ गई थी और मैं भी, जब वो अपनी छातियों की सफाई कर रही होती तो उसे घुर कर देखता रहता। राखी भी मजे से अपने पेटिकोट को जांघो तक उठा कर, एक पत्थर पर बैठ जाती, और साबुन लगाती, और ऐसे एक्टींग करती जैसे मुझे देख ही नही रही है। उसके दोनो घुटने मुडे हुए होते थे, और एक पैर थोडा पहले आगे पसारती और उस पर पुरा जांघो तक साबुन लगाती थी। फिर पहले पैर को मोडे कर, दुसरे पैर को फैला कर साबुन लगाती। पुरा अंदर तक साबुन लगाने के लिये, वो अपने घुटने मोडे रखती और अपने बांये हाथ से अपने पेटिकोट को थोडा उठा के, या अलग कर के दाहिने हाथ को अंदर डाल के साबुन लगाती। मैं चुंकि थोडी दुर पर उसके बगल में बैठा होता, इसलिये मुझे पेटिकोट के अंदर का नजारा तो नही मिलता था। जीसके कारण से मैं मन-मसोस के रह जाता था कि, काश मैं सामने होता। पर इतने में ही मुझे गजब का मजा आ जाता था। उसकी नन्गी, चीकनी-चीकनी जांघे उपर तक दीख जाती थी। राखी अपने हाथ से साबुन लगाने के बाद बडे मग को उठा के उसका पानी सीधे अपने पेटिकोट के अंदर डाल देती और दुसरे हाथ से साथ ही साथ रगडती भी रहती थी। ये इतना जबरदस्त सीन होता था की मेरा तो लंड खडा हो के फुफकारने लगता और मैं वहीं नहाते-नहाते अपने लंड को मसलने लगता। जब मेरे से बरदास्त नही होता तो मैं सीधा नदी में, कमर तक पानी में उतर जाता और पानी के अंदर हाथ से अपने लंड को पकड कर खडा हो जाता, और राखी की तरफ घुम जाता। जब वो मुझे पानी में इस तरह से उसकी तरफ घुम कर नहाते देखती तो मुस्कुरा के मेरी तरफ् देखती हुई बोलती,
"ज्यादा दुर मत जाना, किनारे पर ही नहा ले। आगे पानी बहुत गहरा है।"
मैं कुछ नही बोलता और अपने हाथो से अपने लंड को मसलते हुए नहाने की एक्टींग करता रहता। इधर राखी मेरी तरफ देखती हुइ, अपने हाथो को उपर उठा-उठा के अपनी कांख की सफाई करती। कभी अपने हाथो को अपने पेटिकोट में घुसा के छाती को साफ करती, कभी जांघो के बीच हाथ घुसा के खुब तेजी से हाथ चलाने लगती, दुर से कोई देखे तो ऐसा लगेगा के मुठ मार रही है, और शायद मारती भी होगी। कभी-कभी, वो भी खडे हो नदी में उतर जाती और ऐसे में उसका पेटिकोट, जो की उसके बदन से चीपका हुआ होता था, गीला होने के कारण मेरी हालत और ज्यादा खराब कर देता था। पेटिकोट चीपकने के कारण उसकी बडी-बडी चुचियां नुमायां हो जाती थी। कपडे के उपर से उसके बडे-बडे, मोटे-मोटे निप्पल तक दीखने लगते थे। पेटिकोट उसके चुतडों से चीपक कर उसकी गांड की दरार में फसा हुआ होता था, और उसके बडे-बडे चुतड साफ-साफ दीखाई देते रहते थे। वो भी कमर तक पानी में मेरे ठीक सामने आ के खडी हो के डुबकी लगाने लगती और मुझे अपने चुचियों का नजारा करवाती जाती। मैं तो वहीं नदी में ही लंड मसल के मुठ मार लेता था। हालांकि मुठ मारना मेरी आदत नही थी। घर पर मैं ये काम कभी नही करता था, पर जब से राखी के स्वभाव में परिवर्तन आया था, नदी पर मेरी हालत ऐसी हो जाती थी की, मैं मजबुर हो जाता था। अब तो घर पर मैं जब भी ईस्त्री करने बैठता, तो मुझे बोलती,
"देख, ध्यान से ईस्त्री करियो। पिछली बार श्यामा बोल रही थी की, उसके ब्लाउस ठीक से ईस्त्री नही थे।"
मैं भी बोल पडता,
"ठीक है, कर दुन्गा। इतना छोटा-सा ब्लाउस तो पहनती है, ढंग से ईस्त्री भी नही हो पाती। पता नही कैसे काम चलाती है, इतने छोटे-से ब्लाउस में ?"
तो राखी बोलती,
"अरे, उसकी छातियां ज्यादा बडी थोडे ही है, जो वो बडा ब्लाउस पहनेगी, हां उसकी सांस के ब्लाउस बहुत बडे-बडे है। बुढीया की छाती पहाड जैसी है।"
कह कर आभा हसने लगती। फिर मेरे से बोलती,
"तु सबके ब्लाउस की लंबाई-चौडाई देखता रहता है, क्या ? या फिर ईस्त्री करता है।"
मैं क्या बोलता, चुप-चाप सिर झुका कर ईस्त्री करते हुए धीरे से बोलता,
"अरे, देखता कौन है ?, नजर चली जाती है, बस।"
ईस्त्री करते-करते मेरा पुरा बदन पसीने से नहा जाता था। मैं केवल लुन्गी पहने ईस्त्री कर रहा होता था। राखी मुझे पसीने से नहाये हुए देख कर बोलती,
"छोड अब तु कुछ आराम कर ले, तब तक मैं ईस्त्री करती हुं."
राखी ये काम करने लगती। थोडी ही देर में उसके माथे से भी पसीना चुने लगता और वो अपनी साडी खोल कर एक ओर फेंक देती और बोलती,
"बडी गरमी है रे, पता नही तु कैसे कर लेता है, इतने कपडो की ईस्त्री,,? मेरे से तो ये गरमी बरदास्त नही होती।"
इस पर मैं वहीं पास बैठा उसके नन्गे पेट, गहरी नाभी और मोटे चुंचो को देखता हुआ बोलता,
"ठंडी कर दुं, तुझे ?"
"कैसे करेगा ठंडी ?"
"डण्डेवाले पंखे से। मैं तुझे पंखा झाल देता हुं, फेन चलाने पर तो ईस्त्री ही ठंडी पड जायेगी।"
"रहने दे, तेरे डण्डेवाले पंखे से भी कुछ नही होगा, छोटा-सा तो पंखा है तेरा।",
कह कर अपने हाथ उपर उठा कर, माथे पर छलक आये पसीने को पोंछती तो मैं देखता की उसकी कांख पसीने से पुरी भीग गई है, और उसकी गरदन से बहता हुआ पसीना उसके ब्लाउस के अंदर, उसकी दोनो चुचियों के बीच की घाटी मे जा कर, उसके ब्लाउस को भीगा रहा होता।
घर के अंदर, वैसे भी वो ब्रा तो कभी पहनती नही थी। इस कारण से उसके पतले ब्लाउस को पसिना पुरी तरह से भीगा देता था और, उसकी चुचियां उसके ब्लाउस के उपर से नजर आती थी। कई बार जब वो हल्के रंग का ब्लाउस पहनी होती तो उसके मोटे-मोटे भुरे रंग के निप्पल नजर आने लगते। ये देख कर मेरा लंड खडा होने लगता था। कभी-कभी वो ईस्त्री को एक तरफ रख के, अपने पेटिकोट को उठा के पसीना पोंछने के लिये अपने सिर तक ले जाती और मैं ऐसे ही मौके के इन्तेजार में बैठा रहता था। क्योंकि इस वक्त उसकी आंखे तो पेटिकोट से ढक जाती थी, पर पेटिकोट उपर उठने के कारण उसकी टांगे पुरी जांघ तक नन्गी हो जाती थी, और मैं बिना अपनी नजरों को चुराये उसकी गोरी-चीट्टी, मखमली जांघो को तो जी भर के देखता था। राखी , अपने चेहरे का पसीना अपनी आंखे बंध कर के पुरे आराम से पोंछती थी, और मुझे उसके मोटे कन्दली के खम्भे जैसी जांघो का पुरा नजारा दिखाती थी। गांव में औरते साधारणतया पेन्टी नही पहनती है। कई बार ऐसा हुआ की मुझे उसके झांठो की हलकी-सी झलक देखने को मिल जाती। जब वो पसीना पोंछ के अपना पेटिकोट नीचे करती, तब तक मेरा काम हो चुका होता और मेरे से बरदास्त करना संभव नही हो पाता। मैं जल्दी से घर के पिछवाडे की तरफ भाग जाता, अपने लंड के खडेपन को थोडा ठंडा करने के लिये। जब मेरा लंड डाउन हो जाता, तब मैं वापस आ जाता। राखी पुछती,
"कहां गया था ?"
तो मैं बोलता,
"थोडी ठंडी हवा खाने, बडी गरमी लग रही थी।"
"ठीक किया। बदन को हवा लगाते रहना चाहिये, फिर तु तो अभी बडा हो रहा है। तुझे और ज्यादा गरमी लगती होगी।"
"हां, तुझे भी तो गरमी लग रही होगी राखी ? जा तु भी बाहर घुम कर आ जा। थोडी गरमी शांत हो जायेगी।"
और उसके हाथ से ईस्त्री ले लेता। पर वो बाहर नही जाती और वहीं पर एक तरफ मोढे पर बैठ जाती। अपने पैर घुटनो के पास से मोड कर और अपने पेटिकोट को घुटनो तक उठा के बीच में समेट लेती। राखी जब भी इस तरीके से बैठती थी तो मेरा ईस्त्री करना मुश्कील हो जाता था। उसके इस तरह बैठने से उसकी, घुटनो से उपर तक की जांघे और दीखने लगती थी।
"अरे नही रे, रहने दे मेरी तो आदत पड गई है गरमी बरदाश्त करने की।"
"क्यों बरदाश्त करती है ?, गरमी दिमाग पर चढ जायेगी। जा बाहर घुम के आ जा। ठीक हो जायेगा।"
"जाने दे तु अपना काम कर। ये गरमी ऐसे नही शान्त होने वाली"अब मैं तुझे कैसे समझाउं, कि उसकी क्या गलती है ? काश, तु थोडा समझदार होता।"
कह कर राखी उठ कर खाना बनाने चल देती। मैं भी सोच में पडा हुआ रह जाता कि, आखिर राखी चाहती क्या है ?
रात में जब खाना खाने का टाईम आता, तो मैं नहा-धो कर किचन में आ जाता, खाना खाने के लिये। राखी भी वहीं बैठ के मुझे गरम-गरम रोटियां शेक देती। और हम खाते रहते। इस समय भी वो पेटिकोट और ब्लाउस में ही होती थी। क्योंकि किचन में गरमी होती थी और उसने एक छोटा-सा पल्लु अपने कंधो पर डाल रखा होता। उसी से अपने माथे का पसीना पोंछती रहती और खाना खिलाती जाती थी मुझे। हम दोनो साथ में बाते भी कर रहे होते। मैने मजाक करते हुए बोलता,
"सच में राखी , तुम तो गरम ईस्त्री (वुमन) हो।"
वो पहले तो कुछ समझ नही पाती, फिर जब उसकी समझ में आता की मैं आयरन- ईस्त्री न कह के, उसे ईस्त्री कह रहा हुं तो वो हंसने लगती और कहती,
"हां, मैं गरम ईस्त्री हुं।",
और अपना चेहरा आगे करके बोलती,
"देख कितना पसीना आ रहा है, मेरी गरमी दुर कर दे।"
"मैं तुझे एक बात बोलुं, तु गरम चीज मत खाया कर, ठंडी चीजे खाया कर।"
"अच्छा, कौन सी ठंडी चीजे मैं खांउ, कि मेरी गरमी दुर हो जायेगी ?"
"केले और बैगन की सब्जियां खाया कर।"
इस पर राखी का चेहरा लाल हो जाता था, और वो सिर झुका लेती और धीरे से बोलती,
"अरे केले और बैगन की सब्जी तो मुझे भी अच्छी लगती है, पर कोइ लाने वाला भी तो हो, तेरा जीजा तो ये सब्जियां लाने से रहा, ना तो उसे केले पसंद ,है ना ही उसे बैगन।"
"तु फिकर मत कर। मैं ला दुन्गा तेरे लिये।"
"हाये, बडा अच्छा भाई है, बहिन का कितना ध्यान रखता है।"
मैं खाना खतम करते हुए बोलता,
"चल, अब खाना तो हो गया खतम. तु भी जा के नहा ले और खाना खा ले।"
"अरे नही, अभी तो तेरा जीजा देशी चढा के आता होगा। उसको खिला दुन्गी, तब खाउन्गी, तब तक नहा लेती हुं। तु जा और जा के सो जा, कल नदी पर भी जाना है।"
मुझे भी ध्यान आ गया कि हां, कल तो नदी पर भी जाना है। मैं छत पर चला गया। गरमियों में हम तीनो लोग छत पर ही सोया करते थे। ठंडी ठंडी हवा बह रही थी, मैं बिस्तर पर लेट गया और अपने हाथों से लंड मसलते हुए, राखी के खूबसुरत बदन के खयालो में खोया हुआ, सप्ने देखने लगा और कल कैसे उसके बदन को ज्यादा से ज्यादा निहारुन्गा, ये सोचता हुआ कब सो गया मुझे पता ही नही लगा। सुबह सुरज की पहली किरण के साथ जब मेरी नींद खुली तो देखा, एक तरफ जीजा अभी भी लुढका हुआ है, और राखी शायद पहले ही उठ कर जा चुकी थी। मैं भी जल्दी से नीचे पहुंचा तो देखा की राखी बाथरुम से आ के हेन्डपम्प पर अपने हाथ-पैर धो रही थी। मुझे देखते ही बोली,
"चल, जल्दी से तैयार हो जा, मैं खाना बना लेती हुं। फिर जल्दी से नदी पर नीकल जायेन्गे, तेरे जीजा को भी आज शहर जाना है बीज लाने, मैं उसको भी उठा देती हुं।"
थोडी देर में, जब मैं वापस आया तो देखा की जीजा भी उठ चुका था और वो बाथरुम जाने की तैयारी में था। मैं भी अपने काम में लग गया और सारे कपडों के गठर बना के तैयार कर दीया। थोडी देर में हम सब लोग तैयार हो गये। घर को ताला लगाने के बाद जीजा बस पकडने के लिये चल दीया और हम दोनो नदी की ओर। मैने राखी से पुछा की जीजा कब तक आयेन्गे तो वो बोली,
"क्या पता, कब आयेगा? मुझे तो बोला है की कल आ जाउन्गा पर कोइ भरोसा है, तेरे जीजा का ?, चार दिन भी लगा देगा।"
हम लोग नदी पर पहुंच गये और फिर अपने काम में लग गये, कपडों की सफाई के बाद मैने उन्हे, एक तरफ सुखने के लिये डाल दीये और फिर हम दोनो ने नहाने की तैयारी शुरु कर दी। राखी ने भी अपनी साडी उतार के पहले उसको साफ किया फिर हर बार की तरह अपने पेटिकोट को उपर चढा के अपना ब्लाउस निकला, फिर उसको साफ किया और फिर अपने बदन को रगड-रगड के नहाने लगी। मैं भी बगल में बैठा उसको निहारते हुए नहाता रहा। बे-खयाली में एक-दो बार तो मेरी लुन्गी भी, मेरे बदन पर से हट गई थी। पर अब तो ये बहुत बार हो चुका था। इसलिये मैने इस पर कोइ ध्यान नही दीया। हर बार की तरह आभा ने भी अपने हाथों को पेटिकोट के अन्दर डाल के खुब रगड-रगड के नहाना चालु रखा। थोडी देर बाद मैं नदी में उतर गया। राखी ने भी नदी में उतर के एक-दो डुबकियां लगाई, और फिर हम दोनो बाहर आ गये। मैने अपने कपडे चेन्ज कर लीये और पजामा और कुर्ता पहन लिया।राखी ने भी पहले अपने बदन को टोवेल से सुखाया, फिर अपने पेटिकोट के इजरबंध को जिसको कि, वो छाती पर बांध के रखती थी, पर से खोल लिया और अपने दांतो से पेटिकोट को पकड लिया, ये उसका हंमेशा का काम था, मैं उसको पत्थर पर बैठ के, एक-टक देखे जा रहा था। इस प्रकार उसके दोनो हाथ फ्री हो गये थे। अब सुखे ब्लाउस को पहनने के लीये पहले उसने अपना बांया हाथ उस में घुसाया, फिर जैसे ही वो अपना दाहिना हाथ ब्लाउस में घुसाने जा रही थी कि, पता नही क्या हुआ उसके दांतो से उसका पेटिकोट छुट गया और सीधे सरसराते हुए नीचे गीर गया। और उसका पुरा का पुरा नन्गा बदन एक पल के लीये मेरी आंखो के सामने दिखने लगा। उसकी बडी-बडी चुचियां, जिन्हे मैने अब तक कपडों के उपर से ही देखा था, उसके भारी-भारी चुतड, उसकी मोटी-मोटी जांघे और झांठ के बाल, सब एक पल के लीये मेरी आंखो के सामने नन्गे हो गये। पेटिकोट के नीचे गीरते ही, उसके साथ ही आभा भी, हाये करते हुए तेजी के साथ नीचे बैठ गई। मैं आंखे फाड-फाड के देखते हुए, गुंगे की तरह वहीं पर खडा रह गया। राखी नीचे बैठ कर अपने पेटिकोट को फिर से समेटती हुई बोली,
"ध्यान ही नही रहा। मैं, तुझे कुछ बोलना चाहती थी और ये पेटिकोट दांतो से छुट गया।"
मैं कुछ नही बोला। राखी फिर से खडी हो गई और अपने ब्लाउस को पहनने लगी। फिर उसने अपने पेटिकोट को नीचे किया और बांध लिया। फिर साडी पहन कर वो वहीं बैठ के अपने भीगे पेटिकोट को साफ कर के तैयार हो गई। फिर हम दोनो खाना खाने लगे। खाना खाने के बाद हम वहीं पेड की छांव में बैठ कर आराम करने लगे। जगह सुम-सान थी। ठंडी हवा बह रही थी। मैं पेड के नीचे लेटे हुए, आभा की तरफ घुमा तो वो भी मेरी तरफ घुमी। इस वक्त उसके चेहरे पर एक हलकी-सी मुस्कुराहट पसरी हुई थी। मैने पुछा,
"राखी , क्यों हस रही हो ?"
तो वो बोली,
"मैं कहां हस रही हुं ?"
"झुठ मत बोलो, तुम मुस्कुरा रही हो।"
"क्या करुं ? अब हंसने पर भी कोइ रोक है, क्या ?"
"नही, मैं तो ऐसे ही पुछा रहा था। नही बताना है तो मत बताओ।"
"अरे, इतनी अच्छी ठंडी हवा बह रही है, चेहरे पर तो मुस्कान आयेगी ही।"
"हां, आज गरम ईस्त्री (वुमन) की सारी गरमी जो निकल जायेगी।"
"क्या मतलब, ईस्त्री (आयरन) की गरमी कैसे निकल जायेगी ? यहां पर तो कहीं ईस्त्री नही है।"
"अरे राखी , तुम भी तो ईस्त्री (वुमन) हो, मेरा मतलब ईस्त्री माने औरत से था।"
"चल हट बदमाश, बडा शैतान हो गया है। मुझे क्या पता था की, तु ईस्त्री माने औरत की बात कर रहा है।"
"चलो, अब पता चल गया ना।""हां, चल गया। पर सच में यहां पेड की छांव में कितना अच्छा लग रहा है। ठंडी-ठंडी हवा चल रही है, और आज तो मैने पुरी हवा खायी है।",
राखी बोली।
"पुरी हवा खायी है, वो कैसे ?"
"मैं पुरी नन्गी जो हो गई थी।",
फिर बोली,
"हाये, तुझे मुझे ऐसे नही देखना चाहिए था ?"
"क्यों नही देखना चाहिए था ?"
"अरे बेवकूफ, इतना भी नही समजता। एक बहिन को, उसके भाई के सामने नंगा नही होना चाहिए था।"
"कहां नंगी हुई थी, तुम ? बस एक सेकन्ड के लिये तो तुम्हारा पेटिकोट नीचे गीर गया था।"
(हालांकि, वही एक सेकन्ड मुझे एक घन्टे के बराबर लग रहा था।)
"हां, फिर भी मुझे नंगा नही होना चाहिए था। कोई जानेगा तो क्या कहेगा कि, मैं अपने भाई के सामने नन्गी हो गई थी।"
"कौन जानेगा ?, यहां पर तो कोई था भी नही। तु बेकार में क्यों परेशान हो रही है ?"
"अरे नही, फिर भी कोई जान गया तो।",
फिर कुछ सोचती हुई बोली,
"अगर कोई नही जानेगा तो, क्या तु मुझे नंगा देखेगा ?"
मैं और राखी दोनो एक दुसरे के आमने-सामने, एक सुखी चादर पर, सुम-सान जगह पर, पेड के नीचे एक-दुसरे की ओर मुंह कर के लेटे हुए थे। और राखी की साडी उसके छाती पर से ढलक गई थी। राखी के मुंह से ये बात सुन के मैं खामोश रह गया और मेरी सांसे तेज चलने लगी।राखी ने मेरी ओर देखाते हुए पुछा,
"क्या हुआ ?'
मैने कोई जवाब नही दिया, और हलके से मुस्कुराते हुए उसकी छातियों की तरफ देखने लगा, जो उसकी तेज चलती सांसो के साथ उपर नीचे हो रही थी। वो मेरी तरफ देखते हुए बोली,
"क्या हुआ ?, मेरी बात का जवाब दे ना। अगर कोई जानेगा नही तो क्या तु मुझे नंगा देख लेगा ?"
इस पर मेरे मुंह से कुछ नही निकला, और मैने अपना सिर नीचे कर लिया. राखी ने मेरी ठुड्डी पकड के उपर उठाते हुए, मेरी आंखो में झांखते हुए पुछा,
"क्या हुआ रे ?, बोलना, क्या तु मुझे नंगा देख लेगा, जैसे तुने आज देखा है ?"
मैने कहा,
"हाय राखी , मैं क्या बोलुं ?"
मेरा तो गला सुख रहा था। राखी ने मेरे हाथ को अपने हाथों में ले लिया और कहा,
"इसका मतलब तु मुझे नंगा नही देख सकता, है ना ?"
मेरे मुंह से निकल गया,
"हाये राखी , छोडो ना।",
मैं हकलाते हुए बोला,
"नही राखी , ऐसा नही है।"
"तो फिर क्या है ? तु अपनी बहिन को नंगा देख लेगा क्या ?"
"हाये, मैं क्या कर सकता था ?, वो तो तुम्हरा पेटिकोट नीचे गीर गया, तब मुझे नंगा दिख गया। नही तो मैं कैसे देख पाता ?"
"वो तो मैं समझ गई, पर उस वक्त तुझे देख के मुझे ऐसा लगा, जैसे की तु मुझे घूर रहा है। ,,,,,,,,,,,,इसलिये पुछा।"
"हाये बहिन, ऐसा नही है। मैने तुम्हे बताया ना। तुम्हे बस ऐसा लगा होगा।"
"इसका मतलब, तुझे अच्छा नही लगा था ना।"
"हाये बहिन, छोडो.",
मैं हाथ छुडाते हुए, अपने चेहरे को छुपाते हुए बोला।
बहिन ने मेरा हाथ नही छोडा और बोली,
"सच-सच बोल, शरमाता क्यों है ?"
मेरे मुंह से निकल गया,
"हां, अच्छा लगा था।"
इस पर राखी ने मेरे हाथ को पकडा के, सीधे अपनी छाती पर रख दिया, और बोली,
"फिर से देखेगा बहिन को नंगा, बोल देखेगा ?" मेरे मुंह से आवाज नही निकल पा रही थी। मैं बडी मुश्किल से अपने हाथों को उसकी नुकिली, गुदाज छातियों पर स्थिर रख पा रहा था। ऐसे में, मैं भला क्या जवाब देता। मेरे मुंह से एक कराहने की सी आवाज नीकली। राखी ने मेरी ठुड्डी पकड कर, फिर से मेरे मुंह को उपर उठाया और बोली,
"क्या हुआ ? बोलना, शरमाता क्यों है ? जो बोलना है बोल।"
मैं कुछ नही बोला। थोडी देर तक उसकी चुचियों पर, ब्लाउस के उपर से ही हल्का-सा हाथ फेरा। फिर मैने हाथ खींच लिया। राखी कुछ नही बोली, गौर से मुझे देखती रही। फिर पता नही, क्या सोच कर वो बोली,
"ठीक है, मैं सोती हुं यहीं पर। बडी अच्छी हवा चल रही है, तु कपडों को देखते रहेना, और जो सुख जाये उन्हे उठा लेना। ठीक है ?"
और फिर, मुंह घुमा कर, एक तरफ सो गई। मैं भी चुप-चाप वहीं आंखे खोले लेटा रहा। राखी की चुचियां धीरे-धीरे उपर-नीचे हो रही थी। उसने अपना एक हाथ मोड कर, अपनी आंखो पर रखा हुआ था, और दुसरा हाथ अपनी बगल में रख कर सो रही थी। मैं चुप-चाप उसे सोता हुआ देखता रहा। थोडी देर में उसकी उठती-गीरती चुचियों का जादु मेरे उपर चल गया, और मेरा लंड खडा होने लगा। मेरा दिल कर रह था कि, काश मैं फिर से उन चुचियों को एक बार छु लुं। मैने अपने आप को गालियां भी नीकाली। क्या उल्लु का पठ्ठा हुं मैं भी। जो चीज आराम से छुने को मिल रही थी, तो उसे छुने की बजाये मैं हाथ हटा लिया। पर अब क्या हो सकता था। मैं चुप-चाप वैसे ही बैठा रहा। कुछ सोच भी नही पा रहा था। फिर मैने सोचा कि, जब उस वक्त राखी ने खुद मेरा हाथ अपनी चुचियों पर रख दिया था, तो फिर अगर मैं खुद अपने मन से रखुं तो शायद डांटेगी नही, और फिर अगर डांटेगी तो बोल दुन्गा, तुम्ही ने तो मेरा हाथ उस वक्त पकड कर रखा था, तो अब मैं अपने आप से रख दिया। सोचा, शायद तुम बुरा नही मानोगी। यही सब सोच कर मैने अपने हाथों को धीरे-से उसकी चुचियों पर ले जा के रख दिया, और हल्के-हल्के सहलाने लगा। मुझे गजब का मजा आ रहा था। मैने हल्के-से उसकी साडी को, पुरी तरह से उसके ब्लाउस पर से हटा दिया और फिर उसकी चुचियों को दबाया। ओओह, इतना गजब का मजा आया कि, बता नही सकता। एकदम गुदाज और सख्त चुचियां थी, राखी की इस उमर में भी। मेरा तो लंड खडा हो गया, और मैने अपने एक हाथ को चुचियों पर रखे हुए, दुसरे हाथ से अपने लंड को मसलने लगा। जैसे-जैसे मेरी बेताबी बढ रही थी, वैसे-वैसे मेरे हाथ दोनो जगहों पर तेजी के साथ चल रहे थे। मुझे लगता है कि, मैने राखी की चुचियों को कुछ ज्यादा ही जोर से दबा दिया था। शायद इसलिये राखी की आंख खुल गई। और वो एकदम से हडबडाते उठ गई, और अपने आंचल को संभालते हुए, अपनी चुचियों को ढक लिया, और फिर मेरी तरफ देखती हुइ बोली,
"हाये, क्या कर रहा था तु ? हाय, मेरी तो आंख लग गई थी।"
मेरा एक हाथ अभी भी मेरे लंड पर था, और मेरे चेहरे का रंग उड गया था। राखी ने मुझे गौर से एक पल के लिये देखा और सारा मांजरा समझ गई, और फिर अपने चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट बिखेरते हुए बोली,
"हाये, देखो तो सही !! क्या सही काम कर रहा था ये लडका। मेरा भी मसल रहा था, और उधर अपना भी मसल रहा था।"
फिर राखी उठ कर सीधा खडी हो गई और बोली,
"अभी आती हुं।",
कह कर मुस्कुराते हुए झाडियों कि तरफ बढ गई। झाडियों के पीछे से आ के, फिर अपने चुतडों को जमीन पर सटाये हुए ही, थोडा आगे सरकते हुए मेरे पास आई। उसके सरक कर आगे आने से उसकी साडी थोडी-सी उपर हो गई, और उसका आंचल उसकी गोद में गीर गया। पर उसको इसकी फिकर नही थी। वो अब एकदम से मेरे नजदीक आ गई थी और उसकी गरम सांसे मेरे चेहरे पर महसूस हो रही थी। वो एक पल के लिये ऐसे ही मुझे देखती रही, फिर मेरी ठुड्डी पकड कर मुझे उपर उठाते हुए, हल्के-से मुस्कुराते हुए धीरे से बोली,
"क्यों रे बदमाश, क्या कर रहा था ?, बोलना, क्या बदमाशी कर रहा था, अपनी बहिन के साथ ?"
फिर मेरे फूले-फूले गाल पकड कर हल्के-से मसल दिये। मेरे मुंह से तो आवाज ही नही नीकल रही थी। फिर उसने हल्के-से अपना एक हाथ मेरी जांघो पर रखा और सहलाते हुए बोली,
"हाये, कैसे खडा कर रख है, मुए ने ?"
फिर सीधा पजामे के उपर से मेरे खडे लंड (जो की बहिन के जगने से थोडा ढीला हो गया था, पर अब उसके हाथों का स्पर्श पा के फिर से खडा होने लगा था) पर उसने अपना हाथ रख दिया,
"उईइ मां, कैसे खडा कर रखा है ?, क्या कर रहा था रे, हाथ से मसल रहा था, क्या ? हाये बेटा, और मेरी इसको भी मसल रहा था ? तु तो अब लगता है, जवान हो गया है। तभी मैं कहुं कि, जैसे ही मेरा पेटिकोट नीचे गीरा, ये लडका मुझे घुर-घुर के क्यों देख रहा था ? हाये, इस लडके की तो अपनी बहिन के उपर ही बुरी नजर है।"
"हाये बहिन, गलती हो गई, माफ कर दो।"
"ओहो, अब बोल रहा है गलती हो गई, पर अगर मैं नही जगती तो, तु तो अपना पानी नीकाल के ही मानता ना ! मेरी छातियों को दबा दबा के !! उमम्म्,,,, बोल, नीकालता की नही, पानी ?"
"हाये बहिन, गलती हो गई।"
"वाह रे तेरी गलती, कमाल की गलती है। किसी का मसल दो, दबा दो, फिर बोलो की गलती हो गई। अपना मजा कर लो, दुसरे चाहे कैसे भी रहे।",
कह कर बहिन ने मेरे लंड को कास् के दबाया, उसके कोमल हाथों का स्पर्श पा के मेरा लंड तो लोहा हो गया था, और गरम भी काफी हो गया था। "हाये राखी छोडो, क्या कर रही हो ?" आभा उसी तरह से मुस्कुराती हुई बोली,
"क्यों प्यारे, तुने मेरा दबाया तब, तो मैने नही बोला कि छोडो। अब क्यों बोल रहा है, तु ?"
मैने कहा,
"हाये, राखी तु दबायेगी तो सच में मेरा पानी निकल जायेगा। हाये, छोडो ना आभा।" "क्यों, पानी निकालने के लिये ही तो तु दबा रहा था ना मेरी छातियां ? मैं अपने हाथ से निकाल देती हुं, तेरे गन्ने से तेरा रस। चल, जरा अपना गन्ना तो दिखा।"
"हाये राखी , छोडो, मुझे शरम आती है।"
"अच्छा, अभी तो बडी शरम आ रही है, और हर रोज जो लुन्गी और पजामा हटा-हटा के, जब सफाई करता है तब,,,?, तब क्या मुझे दिखाई नही देता क्या ?, अभी बडी एक्टींग कर रहा है।"
"हाय, नही राखी , तब की बात तो और है, फिर मुझे थोडे ही पता होता था की तुम देख रही हो।"
ओह, ओह, मेरे भोले राजा, बडा भोला बन रहा है, चल दिखा ना, देखुं कितना बडा और मोटा है, तेरा गन्ना ? मैं कुछ बोल नही पा रहा था। मेरे मुंह से शब्द नही निकल पा रहे थे। और लग रहा था जैसे, मेरा पानी अब निकला की तब निकला। इस बीच राखी ने मेरे पजामे का नाडा खोल दिया, और अंदर हाथ डाल के मेरे लंड को सीधा पकड लिया। मेरा लंड जो की केवल उसके छु ने के कारण से फुफकारने लगा था, अब उसके पकडने पर अपनी पुरी औकात पर आ गया और किसी मोटे लोहे की रोड की तरह एकदम तन कर उपर की तरफ मुंह उठाये खडा था। राखी मेरे लंड को अपने हाथों में पकडने की पुरी कोशिश कर रही थी, पर मेरे लंड की मोटाई के कारण से वो उसे अपनी मुठ्ठी में, अच्छी तरह से कैद नही कर पा रही थी। उसने मेरे पजामे को वहीं खुले में, पेड के नीचे, मेरे लंड पर से हटा दिया।
"हाये राखी , छोडो, कोई देख लेगा। ऐसे कपडे मत हटाओ।"
मगर राखी शायद पुरे जोश में आ चुकी थी।
"चल, कोई नही देखता। फिर सामने बैठी हुं, किसी को नजर भी नही आयेगा। देखुं तो सही, मेरे भाई का गन्ना आखिर, है कितना बडा ?"
और मेरा लंड देखते ही, आश्चर्य से उसका मुंह खुला का खुला रह गया। एकदम से चौंकती हुई बोली,
"हाये दैय्या,,,!! ये क्या ,,,,??? इतना मोटा, और इतना लम्बा ! ये कैसे हो गया रे, तेरे जीजा का तो बित्ते भर का भी नही है, और यहां तु बेलन के जैसा ले के घुम रहा है।"
"ओह बहिन, मेरी इसमे क्या गलती है। ये तो शुरु में पहले छोटा-सा था, पर अब अचानक इतना बडा हो गया है, तो मैं क्या करुं ?"
"गलती तो तेरी ही है, जो तुने इतना बडा जुगाड होते हुए भी, अभी तक मुझे पता नही चलने दिया। वैसे जब मैने देखा था नहाते वक्त, तब तो इतना बडा नही दिख रहा था रे,,,,?"
"हाये बहिन, वो,,, वो,,,,"
मैं हकलाते हुए बोला,
"वो इसलिये, क्योंकि उस समय ये उतना खडा नही रहा होगा। अभी ये पुरा खडा हो गया है।"
"ओह, ओह, तो अभी क्यों खडा कर लिया इतना बडा ?, कैसे खडा हो गया अभी तेरा ?अब मैं क्या बोलता कि कैसे खडा हो गया। ये तो बोल नही सकता था कि, बहिन तेरे कारण खडा हो गया है मेरा। मैने सकपकाते हुए कहा,
"अरे, वो ऐसे ही खडा हो गया है। तुम छोडो, अभी ठीक हो जायेगा।"
"ऐसे कैसे खडा हो जाता है तेरा ?",
बहिन ने पुछा, और मेरी आंखो में देख कर, अपने रसीले होठों का एक कोना दबा के मुसकाने लगी ।
"अरे, तुमने पकड रखा है ना, इसलिये खडा हो गया है मेरा। क्या करुं मैं ?, हाये छोड दो ना।"
मैं किसी भी तरह से, बहिन का हाथ अपने लंड पर से हटा देना चाहता था। मुझे ऐसा लग रहा था कि, बहिन के कोमल हाथों का स्पर्श पा के कहीं मेरा पानी निकल ना जाये। फिर बहिन ने केवल पकडा तो हुआ नही था। वो धीरे-धीरे मेरे लंड को सहला भी, और बार-बार अपने अंगुठे से मेरे चिकने सुपाडे को छु भी रही थी।
"अच्छा, अब सारा दोष मेरा हो गया, और खुद जो इतनी देर से मेरी छातियां पकड के मसल रहा था और दबा रहा था, उसका कुछ नही ?""चल मान लिया गलती हो गई, पर सजा तो इसकी तुझे देनी पडेगी, मेरा तुने मसला है, मैं भी तेरा मसल देती हुं।",
कह कर बहिन अपने हाथो को थोडा तेज चलाने लगी और मेरे लंड का मुठ मारते हुए, मेरे लंड की मुंडी को अंगुठे से थोडी तेजी के साथ घीसने लगी। मेरी हालत एकदम खराब हो रही थी। गुदगुदाहत और सनसनी के मारे मेरे मुंह से कोई आवाज नही निकल पा रही थी। ऐसा लग रहा था, जैसे कि, मेरा पानी अब निकला की तब निकला। पर बहिन को मैं रोक भी नही पा रहा था। मैने सिसयाते हुए कहा,
"ओह बहिन, हाये निकल जायेगा, मेरा निकल जायेगा।"
इस पर बहिन और जोर से हाथ चलाते हुए अपनी नजर उपर करके, मेरी तरफ देखते हुए बोली,
"क्या निकल जायेगा ?"
"ओह, ओह, छोडोना, तुम जानती हो, क्या निकल जायेगा,,,? क्यों परेशान कर रही हो ?"
"मैं कहां परेशान कर रही हुं ? तु खुद परेशान हो रहा है।"
"क्यों, मैं क्यों भला खुद को परेशान करुन्गा ? तुम तो खुद ही जबरदस्ती, पता नही क्यों मेरा मसले जा रही हो ?"
"अच्छा, जरा ये तो बता, शुरुआत किसने कि थी मसलने की ?",
कह कर बहिन मुस्कुराने लगी।
मुझे तो जैसे सांप सुंघ गया था। मैं भला क्या जवाब देता। कुछ समझ में ही नही आ रहा था कि क्या करुं, क्या ना करुं ? उपर से मजा इतना आ रहा था कि जान निकली जा रही थी। तभी बहिन ने अचानक मेरा लंड छोड दिया और बोली,
"अभी आती हुं।"
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